सड़कों के उपयोग में हम भारतीय दुनियाभर से काफी अलग हैं। भारतीय समाज में सड़कों का स्थान थोड़ा हैरान करने वाला है। हमारी सड़कों पर बस, कारें, ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा, बाइक, स्कूटर, ट्रैक्टर, घोड़ागाड़ी, साइकिल, पैदल यात्री, पटरी बाज़ार, सब्जी मार्केट, पार्किंग, कचरे का डिब्बा, गाय, कुत्ते सब एक साथ दिखाई देते हैं।


शादियों का जुलूस जब तक गाजे-बाजे के साथ सड़कों पर ना निकले तो दुल्हे राजा और उसके परिवार को संतुष्टि ही नहीं होती। भले ही उस जुलूस से सैकड़ों लोगों को तकलीफ होती हो। हम अपने सारे त्यौहार भी सड़कों पर ही मनाते हैं। दिवाली, ईद और क्रिसमस पर तो बाज़ार की रौनक होती ही है। रंग-बिरंगे बन बाइक और गाड़ियों पर सवार होकर जब तक अपनी खुशी का प्रदर्शन ना किया जाये तो होली का मजा ही नहीं आता। सड़कों को और दुर्गम बना देने वाले पूजा पंड़ाल सड़कों के किनारे ही लगाये जाते हैं। कृष्ण की माखन हांडी पर भी सड़क पर ही फूटती है। अनेक जगह नमाज के लिए सड़कों का उपयोग किया जाता है। हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आदिवासी सब अपने लंबे और धीरे-धीरे रेंगने वाले धार्मिक जुलूस सड़कों पर ही निकालते हैं। मानो सड़कें शक्ति प्रदर्शन का एक राजपथ है। कई बार तो लगता है कि सड़कों पर असुविधाएं झेलने का भारतीय समाज में असीम धैर्य है।

राजनीति का मंच

कारोबार ही नहीं राजनीति भी सड़कों से आरंभ होकर सड़कों पर ही समाप्त होती है। दिल्ली के जंतर-मंतर की तरह अधिकांश छोटे शहरों में भी धरना-प्रदर्शन के लिए कोई चौराहा या सड़क प्रसिद्ध होती है। जहां साल भर राजनैतिक दल अपनी मौजूदगी का अहसास कराते रहते हैं। छुटभैये नेताओं के लिए अपनी राजनीति चमकाने का ये महत्वपूर्ण स्थल होता है यहां नियमित रूप से पुतले फूंककर, धरना देकर, रोड़ जाम करके न केवल बाज़ार आने वाले लोगों का ध्यान आसानी से आकर्षित किया जा सकता है बल्कि अख़बार की सुर्खियां भी बटौरी जा सकती हैं। लड़ाई-झगड़ों, विवादों और दंगों का असली चेहरा भी सड़कों पर ही सामने निकल कर आता है।


कुछ लोग अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डालकर सड़कों पर बाइक के करतब शान से दिखाते हैं। भारत में ही सड़क दुर्घटना में हर साल ढेड लाख लोग अपनी जान गवां देते हैं जिनमें युवाओं की सख्या आधी से अधिक है। हल्की बरसात के बाद गटर का पानी जब सड़कों पर आ जाता है तो सड़कें ही नगरपालिका के इंतजाम की पोल भी खोल देती हैं। सड़कें सार्वजनिक संपत्ति हैं तो स्वाभाविक रूप से इस पर किसी भी समय सुविधानुसार थूकना या कचरा फैंकना हम अपना अधिकार मानते हैं। दरअसल, सड़कों पर भारतीय समाज की रोचक प्रकृति और इसकी हैरान करने वाली आदतों के दर्शन होते हैं।


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By Prof. Dev Vrat Singh

प्रोफेसर देव व्रत सिंह पिछले 25 वर्षों से मीडिया पेशे, शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं। पेशेवर से शिक्षाविद बने प्रो. सिंह ने जनसंचार में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। वर्तमान में, वह झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची के जनसंचार विभाग में संचार के प्रोफेसर हैं। इससे पहले वह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश, जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र, हरियाणा में पूर्णकालिक संकाय के रूप में भी जुड़े रहे थे। डॉ. सिंह ने मीडिया इतिहास, टेलीविजन पत्रकारिता और टेलीविजन सामग्री पर छह पुस्तकें लिखी हैं। उनका काम प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने आईसीएसएसआर, नई दिल्ली द्वारा वित्त पोषित प्रमुख अनुसंधान परियोजना सहित मेरी अनुसंधान परियोजनाओं का पर्यवेक्षण किया है। उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तकों में अध्यायों का योगदान दिया। वह विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए भी लिखते हैं। उन्होंने दर्जनों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में अपना काम प्रस्तुत किया है। उन्होंने चार पीएचडी सहित 100 से अधिक शोध अध्ययनों का पर्यवेक्षण किया है। एक मीडिया विशेषज्ञ के रूप में, वह अक्सर राष्ट्रीय प्रसारकों पर दिखाई देते हैं। उनके अनुसंधान और प्रशिक्षण का मुख्य क्षेत्र डिजिटल मीडिया, प्रसारण समाचार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन उत्पादन हैं। वह एक मजबूत सैद्धांतिक आधार पर आधारित मीडिया शिक्षण के लिए मल्टीमीडिया और बहु-मंच दृष्टिकोण के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध हैं जो संचार के एशियाई दृष्टिकोण के महत्व पर जोर देता है।