लेखक: प्रो. देवव्रत सिंह, विभागाध्यक्ष, जनसंचार विभाग, झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रांची।

मेरे घर के सामने जब से नयी सड़क बनी है, आसपास के सब लोगों में होड़ लग गयी है उसे थूक-थूक कर दूसरी सड़कों की तरह ही लाल रंग देने की। देखना ये है कि कौन उस पर अपनी पीक थूक कर सबसे अधिक चित्रकारी करता है। भारतीय समाज में थूकने की संस्कृति इतनी प्रबल और सर्वव्यापी है कि थोड़ी-थोड़ी देर बाद हम ना थूकें तो बेचैनी होने लगती है। ठीक उसी प्रकार जैसे थोड़ी-थोड़ी देर बाद हम अपना मोबाइल फोन चैक ना करें तो परेशान हो जाते हैं।

और फिर जब थूकने कि तलब लगी हो तो उचित स्थान की तलाश करने का समय कहां होता है। कौन उठाये वाश बेसिन या नाली ढूंढने या उस तक चलकर जाने की जहमत। खुले में नयी दीवार, सड़क या फर्श पर थूकने का आनन्द ही कुछ अलग होता है। स्वच्छ भारत अभियान को स्वच्छंद भारत अभियान में तबदील कर देने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही है।

पुराने जमाने में नवाब लोगों के साथ नौकर पीकदान लेकर चलते थे। अब नवाब भी तो गुजरे जमाने की बात हो गये हैं। पूर्वी भारत में तो थूकने का ग़जब का माहौल है। गुटका, खैनी, पान और पान मसाला चबाने की आदत थूकने की संस्कृति को निरंतर समृद्ध बनाये रखने का काम करती हैं। सरकार ने कानून बनाकर विज्ञापन पर करोड़ों खर्च कर डाले परंतु हालात जस-के-तस हैं। कैंसर का डर दिखाती गुटके के पैक पर छपी तसवीरें भी पान मसाले की बिक्री कुछ कम नहीं कर पायी। आखिर संस्कृति का जो मामला है। सामाजिक आदतें यूं ही थोड़े बदली जाती हैं। सदियों से पान और खैनी हमारी संस्कृति की पहचान रही हैं।

सरकारी दफतर, कचहरी, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, सड़कें सब जगह पीक चित्रकारी के दर्शन आसानी से सुलभ हो जाते हैं। किसी विदेशी को थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन हम भारतीयों को ये चित्रकारी जीवन का बिलकुल सहज अंग लगती है। यहां तक कि व्यक्ति के कपड़ों पर पीक के छींटे भी उसके पीक चित्रकार होने के संकेत देते हैं। कार-बाइक चलाते हुए यदि अगली बस की खिड़की से किसी पीकते व्यक्ति के छींटे आप पर भी आते हैं तो जनाब संस्कृति के लिए थोड़ा सहन करना सीखिये। कुछ लोग चलती कार का दरवाजा खोल कर थूकते हुए अपने थूकने के हुनर का शानदार सार्वजनिक प्रदर्शन भी करते हैं। पान मसाले से रंगीन बने दांत और होंठ अमिताभ बच्चन पर फिल्माये गीत खइके पान बनारस वाला की याद दिलाते हैं। फिल्मों में भी अकसर पान मसाला खाने और बीच-बीच में थूकने वाले व्यक्ति में गज़ब का देशज आत्मविश्वास दिखाया जाता है। टेलीविजन पर भी ऊंचे लोग-ऊंची पसंद वाले विज्ञापन इस सांस्कृतिक गौरव के अहसास को जगाते हैं।

गांव-देहात में किशोर कब बड़ों के साथ बैठे-बैठे मसाला खाने और उन्हीं की तरह थूकना शुरू कर देते हैं पता भी नहीं चलता। संस्कृति इसी प्रकार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित हो जाती है। बस चंद शहरी पढ़े-लिखे लोग ही इस पीक संस्कृति से बचे हुए हैं। इसलिए लोकतंत्र में बहुमत ही संस्कृति का निर्माण करते हैं।   


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By Prof. Dev Vrat Singh

प्रोफेसर देव व्रत सिंह पिछले 25 वर्षों से मीडिया पेशे, शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं। पेशेवर से शिक्षाविद बने प्रो. सिंह ने जनसंचार में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। वर्तमान में, वह झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची के जनसंचार विभाग में संचार के प्रोफेसर हैं। इससे पहले वह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश, जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र, हरियाणा में पूर्णकालिक संकाय के रूप में भी जुड़े रहे थे। डॉ. सिंह ने मीडिया इतिहास, टेलीविजन पत्रकारिता और टेलीविजन सामग्री पर छह पुस्तकें लिखी हैं। उनका काम प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने आईसीएसएसआर, नई दिल्ली द्वारा वित्त पोषित प्रमुख अनुसंधान परियोजना सहित मेरी अनुसंधान परियोजनाओं का पर्यवेक्षण किया है। उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तकों में अध्यायों का योगदान दिया। वह विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए भी लिखते हैं। उन्होंने दर्जनों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में अपना काम प्रस्तुत किया है। उन्होंने चार पीएचडी सहित 100 से अधिक शोध अध्ययनों का पर्यवेक्षण किया है। एक मीडिया विशेषज्ञ के रूप में, वह अक्सर राष्ट्रीय प्रसारकों पर दिखाई देते हैं। उनके अनुसंधान और प्रशिक्षण का मुख्य क्षेत्र डिजिटल मीडिया, प्रसारण समाचार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन उत्पादन हैं। वह एक मजबूत सैद्धांतिक आधार पर आधारित मीडिया शिक्षण के लिए मल्टीमीडिया और बहु-मंच दृष्टिकोण के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध हैं जो संचार के एशियाई दृष्टिकोण के महत्व पर जोर देता है।