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Surname का गेम: कभी परेशानी तो कभी फेम!

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Surname: गांव में जिनका बचपन गुजरा है उन्हें जरूर याद होगा कि तीन दशक पहले तक गावों में किसी नये व्यक्ति से परिचय करते हुए सहज भाव से ये पूछ लिया जाता था कि आप किन घरों में हैं। इसका सीधा सा उद्देश्य उस व्यक्ति की जाति और सामाजिक स्थिति जानना था। ताकि उसके साथ व्यवहार में सुविधा हो क्योंकि अधिकांश गांवों में मोहल्ले जाति के अनुसार बने हुए हैं। लेकिन अब किसी की जाति सीधे रूप से पूछना अशोभनीय व्यवहार बन गया है। हालांकि दूसरे व्यक्ति की जाति जानने की इच्छा आज भी हमारे मन में बनी हुई है। शहरी परिवेश में ये जिज्ञासा उसका पूरा नाम यानी सरनेम (Surname) जानकर पूरी होती है। पिछले दिनों गूगल कंपनी ने बताया कि शानदार जीत के बाद भारत में बड़ी संख्या में लोगों ने जीतने वाले खिलाडियों की जाति को गूगल पर तलाशने की कोशिश की।       


हाल ही में मेरी एक छात्रा जब पढ़ाई पूरी करके दिल्ली नौकरी करने गयी तो वहां जाकर सबसे पहले उसने अपने नाम के पीछे कुमारी हटाकर अपना सरनेम (Surname) लगा लिया। उसने बताया कि इससे उसकी पहचान आसानी से बन गयी और मीडिया में प्रवेश करना भी आसान हो गया। हालांकि अनेक बार सरनेम विशेष नौकरी पाने में मुश्किलें भी खड़ी कर देता है। समस्या तब आती है जब सरनेम से आपकी जाति का सही और स्पष्ट अनुमान लगाना मुश्किल होता है। या फिर अनेक जातियों के surname एक जैसे हैं। यही कारण है कि जातिगत संगठन अपने जातभाईयों से अधिक स्पष्ट सरनेम लगाने की अपील करते हैं। व्हाट्सएप और फेसबुक पर जाति आधारित समूहों की भरमार है। तथाकथित उच्च जातियों के रहन-सहन समेत surname की अन्य द्वारा नकल करना संस्कृतिकरण की प्रकिया माना जाता है।  

जाति और सरनेम ( surname ) की महिमा

महिलाओं में Surname का बदलता चलन

भारत में लड़कियों और महिलाओं में सरनेम लगाने का चलन ना के बराबर रहा है। महिलाएं यदि surname लगाती भी हैं तो शादी के बाद वे अपने पति का नाम या सरनेम अपना लेती हैं। नारीवादियों ने जब सरनेम बदलने की पुरूषवादी कहकर आलोचना की तो कुछ महिलाएं दोनों सरनेम एक साथ भी लगाने लगीं। अंतरजातीय विवाहों में भी यही हुआ। कुछ नाम अंजना गुप्ता-शर्मा की तरह भी मिल जाएंगे। अंग्रेजों ने भी समाज के प्रभावशाली तबके को अपने साथ लेने के लिए उनके नाम के आगे सम्मानसूचक शब्द जैसे पंडित, मुंशी, लाला, चौधरी इत्यादि लगाना आरंभ किया। उस जमाने में सामान्यत आम लोग सरनेम नहीं लगाते थे।


भारतीय समाज में सदियों से जाति नामक संस्था ना केवल बरकरार है बल्कि वह निरंतर बदलती परिस्थितयों में अपना रूप बदलते हुए मज़बूती से सामाजिक परिवेश को प्रभावित करती रही है। सामाजिक विमर्श, मानवीय संबंधों, निर्णयों एवं पूर्वाग्रहों में आज भी जाति की परछायी आसानी से देखी जा सकती है। प्रधानमंत्री जी को हाल ही में कहना पड़ा कि नये भारत में सरनेम (Surname) देखकर नौकरी नहीं मिलेगी। दरअसल आजादी के इतने वर्षों बाद भी जातिगत मनोभावों का इतना प्रबल होना अनेक प्रश्न पैदा करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सब जाति का दंश निरंतर झेलते हुए भी इसका आनंद लेने का भ्रम पाले हुए हैं।  

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Prof. Dev Vrat Singh

प्रोफेसर देव व्रत सिंह पिछले 25 वर्षों से मीडिया पेशे, शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं। पेशेवर से शिक्षाविद बने प्रो. सिंह ने जनसंचार में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। वर्तमान में, वह झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची के जनसंचार विभाग में संचार के प्रोफेसर हैं। इससे पहले वह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश, जनसंचार एवं मीडिया प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र, हरियाणा में पूर्णकालिक संकाय के रूप में भी जुड़े रहे थे। डॉ. सिंह ने मीडिया इतिहास, टेलीविजन पत्रकारिता और टेलीविजन सामग्री पर छह पुस्तकें लिखी हैं। उनका काम प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने आईसीएसएसआर, नई दिल्ली द्वारा वित्त पोषित प्रमुख अनुसंधान परियोजना सहित मेरी अनुसंधान परियोजनाओं का पर्यवेक्षण किया है। उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तकों में अध्यायों का योगदान दिया। वह विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए भी लिखते हैं। उन्होंने दर्जनों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में अपना काम प्रस्तुत किया है। उन्होंने चार पीएचडी सहित 100 से अधिक शोध अध्ययनों का पर्यवेक्षण किया है। एक मीडिया विशेषज्ञ के रूप में, वह अक्सर राष्ट्रीय प्रसारकों पर दिखाई देते हैं। उनके अनुसंधान और प्रशिक्षण का मुख्य क्षेत्र डिजिटल मीडिया, प्रसारण समाचार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन उत्पादन हैं। वह एक मजबूत सैद्धांतिक आधार पर आधारित मीडिया शिक्षण के लिए मल्टीमीडिया और बहु-मंच दृष्टिकोण के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध हैं जो संचार के एशियाई दृष्टिकोण के महत्व पर जोर देता है।

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