लकड़ी से लग्ज़री तक: सीटों की रेल-कथा

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अगर भारतीय रेलवे की सीटें बोल पातीं, तो शायद वे खुद अपने सफर के बारे में सबसे दिलचस्प कहानियां सुनातीं। उस वक्त ट्रेनों में लकड़ी की बेंचें हुआ करती थीं—सीधी, कठोर, और बिना कुशन की। ऐसी सीटें जिन पर बैठते ही लोग अपनी मंज़िल से ज्यादा अपनी कमर के बारे में सोचने लगते थे।

भारतीय रेलवे, जिसे देश की जीवन रेखा माना जाता है, न केवल यातायात का प्रमुख साधन है, बल्कि भारतीय समाज और उसकी प्रगति का एक प्रतिबिंब भी है। इसका हर पहलू, चाहे वह रेलगाड़ियों की गति हो या उनकी सीटों की बनावट, समय के साथ बदलता और विकसित होता रहा है। खासकर सीटों का इतिहास बेहद दिलचस्प है। यह केवल तकनीकी विकास की गाथा नहीं है, बल्कि यात्रियों के अनुभव और सुविधा के प्रति रेलवे की प्रतिबद्धता का भी प्रतीक है।

शुरुआत का दौर: लकड़ी की कठोर बेंचों का समय

भारतीय रेलवे की शुरुआत 16 अप्रैल 1853 को मुंबई और ठाणे के बीच हुई पहली ट्रेन से हुई। उस समय ट्रेन की सीटें इतनी साधारण थीं कि आज के समय में कोई उनकी कल्पना भी नहीं कर सकता। लकड़ी की बेंचें यात्रियों के बैठने के लिए लगाई जाती थीं, जो सीधी और कठोर थीं। न उनमें कुशन था, न कोई बैकरेस्ट। लंबी यात्राओं के दौरान इन बेंचों पर बैठना किसी परीक्षा से कम नहीं था।

उस वक्त ट्रेनों का मकसद यात्रियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना था, न कि उन्हें आरामदायक अनुभव देना। ब्रिटिश शासन के दौरान ट्रेनों की सीटों में साफ-साफ वर्ग विभाजन देखने को मिलता था। फर्स्ट क्लास में यात्रा करने वाले यात्रियों को कुशन वाली आरामदायक सीटें मिलती थीं, जो अमीरों और अंग्रेज अधिकारियों के लिए बनाई गई थीं। इन सीटों में मखमल या चमड़े का इस्तेमाल होता था, जो उस समय लग्जरी का प्रतीक था। वहीं, थर्ड क्लास की सीटें लकड़ी की बनी होती थीं, जिनमें न आराम की कोई गुंजाइश थी और न ही किसी तरह की डिजाइनिंग। फर्स्ट क्लास में लकड़ी की सीटों पर कपड़े की परत या चमड़े का उपयोग किया जाता था, लेकिन साधारण श्रेणी के यात्री पूरी तरह लकड़ी की कठोरता का सामना करते थे। यह दौर सीटों के मामले में असुविधा का था, लेकिन उसी समय भारतीय रेलवे ने एक नए सफर की नींव रखी।

हालांकि, 20वीं सदी की शुरुआत में कुछ छोटे सुधार देखने को मिले। निम्न श्रेणी के डिब्बों में लकड़ी की सीटों पर कपड़े की परत चढ़ाई जाने लगी, लेकिन ये बदलाव भी बहुत मामूली थे।

रेलवे की सीट

आजादी के बाद: सुधार और स्लीपर क्लास का विकास

1947 में स्वतंत्रता के बाद भारतीय रेलवे ने यात्रियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सुधार शुरू किए। स्वतंत्र भारत के लिए रेलवे केवल परिवहन का साधन नहीं था, बल्कि यह आर्थिक विकास और सामाजिक जुड़ाव का जरिया भी बन गया। इस दौर में सीटों में बदलाव होना शुरू हुआ। लकड़ी की कठोर बेंचों की जगह कुशन वाली सीटों ने ले ली। साधारण श्रेणी में भी सीटों पर फोम और कपड़े का इस्तेमाल होने लगा, जिससे यात्रियों को थोड़ा आराम मिलने लगा।

इसी समय स्लीपर क्लास की शुरुआत हुई, जो भारतीय रेलवे के इतिहास में एक बड़ा बदलाव था। लंबी दूरी की यात्रा के लिए स्लीपर क्लास में यात्रियों को लेटने की सुविधा दी गई। यह पहली बार था जब निम्न और मध्यम वर्ग के यात्रियों को भी आरामदायक सफर का अनुभव मिलने लगा। इसके साथ ही आरक्षित सीटों की व्यवस्था लागू की गई, ताकि यात्रियों को सीट के लिए संघर्ष न करना पड़े।

1970 और 80 का दशक: डिज़ाइन और सामग्री में बदलाव

1970 और 80 के दशक में रेलवे ने सीटों के डिजाइन और सामग्री पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। फोम और कपड़े का व्यापक रूप से उपयोग किया गया, जिससे सीटें अधिक आरामदायक हो गईं। डिब्बों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया गया, जैसे जनरल क्लास, स्लीपर क्लास, और एसी क्लास।

उच्च श्रेणी के डिब्बों में सीटों को और बेहतर बनाया गया। इनमें बैकरेस्ट और हेडरेस्ट जोड़े गए, ताकि यात्रियों को लंबी दूरी की यात्रा के दौरान अधिक सुविधा मिल सके। इस समय तक रेलवे की प्राथमिकता यात्रियों को अधिक आरामदायक सफर उपलब्ध कराना बन चुकी थी। 21वीं सदी में भारतीय रेलवे ने सीटों को यात्रियों की बढ़ती अपेक्षाओं के अनुरूप आधुनिक और तकनीकी रूप से उन्नत बनाना शुरू किया। राजधानी और शताब्दी जैसी प्रीमियम ट्रेनों ने सीटों को अधिक आरामदायक और एग्रोनॉमिक बना दिया। इन सीटों में रीडिंग लाइट, चार्जिंग पॉइंट और पर्याप्त लेगरूम जैसी सुविधाएं जोड़ी गईं।

वंदे भारत जैसी ट्रेनों ने तो इस क्षेत्र में क्रांति ही ला दी। इन ट्रेनों में स्मार्ट सीटिंग सिस्टम, ऑटोमैटिक रिक्लाइनिंग और ऑनबोर्ड एंटरटेनमेंट जैसी सुविधाएं हैं। यात्रियों को यहां पहली बार ऐसा लगा कि वे ट्रेन में नहीं, बल्कि किसी फाइव-स्टार होटल में सफर कर रहे हैं।

भारतीय रेल का भविष्य

अब भारतीय रेलवे बुलेट ट्रेन और हाई-स्पीड ट्रेनों की ओर बढ़ रही है। इन ट्रेनों में सीटें न केवल आरामदायक होंगी, बल्कि पर्यावरण के अनुकूल और तकनीकी रूप से उन्नत भी होंगी। स्मार्ट फीचर्स, बेहतर डिज़ाइन और यात्रियों की जरूरतों के अनुरूप सुविधाएं जोड़ने पर जोर दिया जा रहा है। भारतीय रेलगाड़ी की सीटों का सफर केवल तकनीकी बदलाव का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह यात्रियों की बदलती जरूरतों और रेलवे की प्रगति की कहानी है। लकड़ी की कठोर बेंच से लेकर हाई-टेक सीटिंग तक का यह सफर बताता है कि भारतीय रेलवे न केवल समय के साथ बदली है, बल्कि उसने यात्रियों की सुविधा को हमेशा प्राथमिकता दी है। अगली बार जब आप ट्रेन में सफर करें, तो उस सीट पर बैठकर यह जरूर सोचें कि यह केवल बैठने की जगह नहीं, बल्कि भारतीय रेलवे के लंबे और प्रेरणादायक सफर की गवाही है।

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