भारत की न्यायिक प्रणाली में व्यापक सुधार के उद्देश्य से पेश की गई नई न्याय संहिता प्रारंभ से ही विवादों में घिरी हुई है। सरकार का दावा है कि इस नए विधेयक से न्याय प्रणाली अधिक पारदर्शी और प्रभावी होगी, लेकिन इसके कई प्रावधानों ने समाज के विभिन्न वर्गों में चिंता और असहमति पैदा की है। आइए इन विवादों पर एक नज़र डालते हैं।


नए BNS 2023 में सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर करना है।भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 एक कानूनी प्रावधान है, जो 1861 में ब्रिटिश काल में लागू किया गया था। यह धारा “अप्राकृतिक अपराधों” से संबंधित है और इसमें “प्रकृति के आदेश के खिलाफ” किसी भी तरह के यौन संबंध को अपराध माना गया है। किंतु नए न्याय संघीता में इस कानून को पूरी तरह से रद्द कर दिया गया और यही कारण है जिस वजह से इस पर विवाद बना हुआ है । धारा 377 का इस्तेमाल तब होता था जब किसी पर पारालैंगिक या पुरुषों के साथ यौन उत्पीड़न  का आरोप दर्ज होता था जाता था। परंतु अब इसके हट जाने से  पुरुष और पारलैंगिक यौन पीड़ितों के लिए कोई न्यायिक प्रावधान नहीं है इस धारा के तहत समलैंगिक संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया था। 2018 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा के तहत समलैंगिकता को अपराध मुक्त कर दिया, यह निर्णय LGBTQ+ अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।  इसके अलावा महिला सुरक्षा और यौन अपराधों से संबंधित प्रावधानों में भी महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। नए विधेयक में यौन अपराधों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है, जिसमें फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना और त्वरित न्यायिक प्रक्रिया को शामिल किया गया हैं।


नए न्याय संहिता में पुलिस हिरासत की अवधि को 90 दिनों तक बढ़ाने का प्रावधान भी शामिल है, जो पहले 15 दिनों तक थी। इस बदलाव ने मानवाधिकार संगठनों और कानूनी विशेषज्ञों के बीच चिंता पैदा की है। मानवाधिकार कार्यकर्ता अनुराधा मिश्रा ने कहा, “यह प्रावधान पुलिस के दुरुपयोग की संभावना को बढ़ा सकता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह केवल असाधारण परिस्थितियों में ही लागू हो और इसके लिए स्पष्ट दिशानिर्देश हों।”उनका मानना है कि हिरासत की अवधि बढ़ाने से अत्याचार और जबरन स्वीकारोक्ति के मामले बढ़ सकते हैं।  हालांकि,  पुलिस विभाग का तर्क है कि बढ़ती अपराध दर और जटिल जांच प्रक्रियाओं के चलते हिरासत की अवधि बढ़ाना आवश्यक है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस विवाद पर अपना पक्ष रखते हुए बोला -“हमारे पास कई मामलों में पर्याप्त साक्ष्य इकट्ठा करने के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है। 90 दिनों की अवधि से हमें जटिल अपराधों की जांच करने में मदद मिलेगी।” सरकार को इस प्रावधान पर गंभीरता से पुनर्विचार करने की जरूरत है। एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए, सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह प्रावधान पुलिस द्वारा अनावश्यक दुरुपयोग का कारण न बने  तथा मानवाधिकार अधिकार सुनिश्चित रहें।

एक और विवाद का मुख्य कारण है पुलिस अधिकारियों के विवेकाधीन शक्तियों को विस्तारित कर देना नए न्याय संगीता 2023 में आतंकवाद जैसे मामलों को समान अपराध के सूची में शामिल कर दिया गया है। क्योंकि हमारे देश में आतंकवाद को लेकर पहले से ही UAPA (unlawful activity prevention act) का गठन किया गया है इस वजह से यह पूरी तरह पुलिस अधिकारी के विवेक पर निर्भर करेगा कि आतंकवादी मामलों को सुलझाने के लिए वह UAPA की मदद ले या न्याय संघिता की। इन विवेक धिन शक्तियों की वजह से पीड़ित को बहुत ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है  जब हम बात करते हैं अप्राधिक कानून बनाने  के सिद्धांत की, तो वह यह कहती है कि कानून जितने ज्यादा स्पष्ट होंगे  न्याय उतना बेहतर होगा। लेकिन नए न्याय संघिता में स्पष्टता की कमी देखने को मिल रही है।

इस नए विधेयक की आलोचना और समर्थन दोनों ही दृष्टिकोणों से समझना महत्वपूर्ण है। जबकि यह सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, इसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि इसे कैसे लागू किया जाता है और इसके प्रावधानों को कितनी प्रभावी तरीके से कार्यान्वित किया जाता है। नए भारतीय न्याय संहिता 2023 ने समाज में गहरे विवाद और बहस को जन्म दिया है। सरकार को इस विधेयक के संतुलित और न्यायसंगत कार्यान्वयन पर ध्यान देना चाहिए, ताकि सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित की जा सके। सुधार आवश्यक हैं, लेकिन उन्हें इस तरह से लागू किया जाना चाहिए कि वे न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और प्रभावशीलता को बढ़ाएं, बिना किसी समुदाय या व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किए। केवल तभी यह सुधार देश के न्यायिक ढांचे को सुदृढ़ और न्यायसंगत बना पाएगा।


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By Sumedha