वडोदरा, गुजरात में एक अनोखी और सदियों पुरानी परंपरा का पालन किया जाता है, जहां ताज़िया को तब तक दफन नहीं किया जाता जब तक उसे बहुचराजी माता मंदिर के पुजारी द्वारा शीतल नहीं किया जाता। यह परंपरा 250 साल से भी अधिक पुरानी है और हर साल मुहर्रम के मौके पर इसे निभाया जाता है।

मुहर्रम, जो इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है, शिया मुस्लिम समुदाय के लिए विशेष महत्व रखता है। इस महीने में हज़रत इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत को याद किया जाता है। ताज़िया, जो इन शहीदों की याद में बनाया जाता है, इसे विशेष रीति-रिवाजों के साथ सजाया जाता है और एक जुलूस के रूप में निकाला जाता है।

इस धार्मिक परंपरा का महत्व इस तथ्य में है कि बहुचराजी माता को यहां के निवासियों द्वारा अत्यधिक श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजा जाता है। माना जाता है कि ताज़िया को माता के मंदिर में ले जाकर और वहां के पुजारी द्वारा उसे शीतल करवाने से यह पवित्र हो जाता है और फिर उसे दफन किया जाता है।

बहुचराजी माता मंदिर के पुजारी का कहना है कि यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसे निभाने का मुख्य उद्देश्य समुदायों के बीच शांति और सौहार्द बनाए रखना है। उनका मानना है कि इस प्रक्रिया के माध्यम से दोनों समुदायों के बीच आपसी सम्मान और प्रेम बढ़ता है।

ताज़िया को शीतल करने की प्रक्रिया भी विशेष ध्यान आकर्षित करती है। पुजारी ताज़िया के ऊपर पवित्र जल का छिड़काव करते हैं और विशेष मंत्रों का उच्चारण करते हैं। इसके बाद ताज़िया को जुलूस के साथ दफन स्थली तक ले जाया जाता है। यह जुलूस शहर की गलियों से होकर गुजरता है, जहां लोग फूल और गुलाबजल के साथ ताज़िया का स्वागत करते हैं।

हर साल, मुहर्रम के दौरान, विभिन्न समुदायों के लोग इस परंपरा का पालन करते हैं और एकजुटता और भाईचारे का संदेश देते हैं। इस अनूठी परंपरा ने वडोदरा को एक विशिष्ट पहचान दिलाई है और यह दर्शाती है कि धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के बावजूद, एकता और सहयोग की भावना को बनाए रखा जा सकता है।

वडोदरा में इस परंपरा को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं और यह परंपरा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक धरोहर भी है। इस परंपरा के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि भले ही धर्म और आस्थाएं अलग-अलग हों, लेकिन प्रेम और भाईचारे की भावना हम सभी को एकजुट कर सकती है।

Source: ANI


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By Sumedha