जब भी कोई कहता है -“सुई में धागा डाल दो”, तो ये बात जितनी आसान सुनाई देती है, उतनी ही चुनौतीपूर्ण होती है, खासकर तब जब आंखें धुंधली हों, हाथ कांपते हों, और रोशनी थोड़ी कम हो। लेकिन क्या वाकई ये सिर्फ आंख और हाथ की तालमेल की बात है? या फिर ये एक गहरी, जीवन से जुड़ी रूपक है?
धागा – पतला, कोमल और लहराता हुआ। उसकी अपनी कोई दिशा नहीं होती, वो हवा के झोंकों से भी बहक सकता है। और सुई? वो तो चुपचाप खड़ी रहती है – सख्त, छोटी और संकुचित। उसका छेद इतना छोटा होता है कि जैसे दुनिया के सारे धैर्य की परीक्षा वहीं होती हो। सुई के उस छोटे से छिद्र में धागा डालने की कोशिश, दरअसल दो विपरीत स्वभावों को मिलाने की कोशिश जैसी होती है – एक लचीला, एक कठोर।
तकनीक नहीं, भावनाएं भी जुड़ी हैं
बचपन में मां की गोदी में बैठकर देखा था – वो बिना चश्मे के भी सुई में धागा डाल लेती थीं। कैसे? शायद अभ्यास से, लेकिन उससे भी ज़्यादा – लगन से। हर धागा किसी फटे कपड़े को जोड़ने, किसी गुड़िया का फटा पैर सिलने, या किसी पुराने रुमाल को नया रूप देने के लिए होता था। सुई में धागा डालना उनके लिए सिर्फ एक क्रिया नहीं थी – वो एक भावना थी, मरम्मत की, जोड़ने की, सहेजने की।
अगर आप जल्दी में हैं, तो यकीन मानिए, धागा सुई में नहीं जाएगा। वो मुड़ जाएगा, बिखर जाएगा, दो फाड़ हो जाएगा, लेकिन सुई में नहीं घुसेगा। ये एक ऐसा कार्य है जो सिखाता है- रुकिए, गहराई से देखिए, अपनी पकड़ ढीली कीजिए, और फिर कोशिश कीजिए। कुछ कार्य तभी पूरे होते हैं जब हम उन्हें समय देना सीखते हैं।
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